Monday, April 30, 2012

2001 की जनगणना के अनुसार भारत में वृद्धों की संख्या सात करोड़ सत्तर लाख है जबकि 1961 में उनकी संख्या केवल दो करोड़ चालीस लाख थी। 1981 में यह बढ़कर चार करोड़ तीस लाख हो गई और सन् 91 में ये पाँच करोड़ सत्तर लाख तक पहुंच गई। भारत की आबादी में वृद्ध लोगों का अनुपात 1961 में 5.63 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2001 तक 7.5 प्रतिशत हो गया और 2025 तक यह 12 प्रतिशत तक हो जाने की संभावना है। सत्तर साल से अधिक आयु के वृद्ध जनों की संख्या जहां 1961 में अस्सी लाख थी वहीं वर्ष 2001 में यह बढ़कर दो करोड़ नब्बे लाख हो गई। भारतीय जनसंख्या के आंकड़े के अनुसार 1961 में शताब्दी पूरा करने वालों की संख्या 99 हज़ार दर्ज की गई, वहां 1991 में ये बढ़कर एक लाख अड़तीस हज़ार हो गई...

2001 की जनगणना के अनुसार भारत में वृद्धों की संख्या सात करोड़ सत्तर लाख है जबकि 1961 में उनकी संख्या केवल दो करोड़ चालीस लाख थी। 1981 में यह बढ़कर चार करोड़ तीस लाख हो गई और सन् 91 में ये पाँच करोड़ सत्तर लाख तक पहुंच गई। भारत की आबादी में वृद्ध लोगों का अनुपात 1961 में 5.63 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2001 तक 7.5 प्रतिशत हो गया और 2025 तक यह 12 प्रतिशत तक हो जाने की संभावना है। सत्तर साल से अधिक आयु के वृद्ध जनों की संख्या जहां 1961 में अस्सी लाख थी वहीं वर्ष 2001 में यह बढ़कर दो करोड़ नब्बे लाख हो गई। भारतीय जनसंख्या के आंकड़े के अनुसार 1961 में शताब्दी पूरा करने वालों की संख्या 99 हज़ार दर्ज की गई, वहां 1991 में ये बढ़कर एक लाख अड़तीस हज़ार हो गई।
भारत में 21 शताब्दी के पहले मध्य में आयु संबंधी परिदृश्य के आकलन के लिए अगले पचास वर्षों में वृद्धों की संख्या अनुमानित की गयी है। भारत के साठ और उससे अधिक आयु के वृद्धों की संख्या 2001 में 7 करोड़ 70 लाख से बढ़कर वर्ष 2031 में एक अरब 7 करोड़ 90 लाख पहुंच जाने की संभावना है और वर्ष 2051 तक 3 अरब 10 लाख तक पहुंचने का अनुमान लगाया गया है। 70 साल से अधिक आयु के लोगों की संख्या में वर्ष 2001 से 2051 के बीच पाँच गुणा वृद्धि का अनुमान लगाया गया है।

समाज में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं चिंता की वजह है क्योंकि वृद्ध लोगों को युवाओं की अपेक्षा खराब स्वास्थ्य का सामना करना पड़ता है। शारीरिक बीमारी के अलावा अधिक आयु के लोगों को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से पीड़ित होने की भी संभावना रहती है। अध्ययन से पता चला है कि अधिक आयु के लोग ज्यादातर खांसी से पीड़ित रहते हैं। (बीमारियों के अंतर्राष्ट्रीय वर्गीकरण के अनुसार ये टीबी, फेफड़े की सूजन, दमा, काली खांसी इत्यादि से जुड़ी खांसी होती है)। कमजोर दृष्टि, शरीर में रक्त की अल्पता और दाँत संबंधी समस्याओं से भी वे जूझते हैं। अधिक आयु होने से वृद्ध लोगों में बीमारी बढ़़ने और बिस्तर पकड़ लेने का अनुपात बढ़ता पाया गया है। शारीरिक अक्षमताओं में दृष्टि दोष और श्रवण शक्ति खत्म होना प्रमुख है।

इस वर्ष 7 अप्रैल को विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य दिवस मनाया गया, जो बढ़़ती आयु एवं स्‍वास्‍थ्‍य पर आधारित था। इसकी विषयवस्‍तु गुड हैल्‍थ ऐड्स लाइफ टू इयर्स थी। अधिकतर देशों में जीवन बढ़ रहा है। इसका मतलब यह है कि वहां लोग अब ज्‍यादा दिनों तक जिंदा रहते हैं और वह एक ऐसी उम्र में पहुंच रहे हैं, जहां उन्‍हें स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं की सर्वाधिक आवश्‍यकता होती है...

इस वर्ष 7 अप्रैल को विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य दिवस मनाया गया, जो बढ़़ती आयु एवं स्‍वास्‍थ्‍य पर आधारित था। इसकी विषयवस्‍तु गुड हैल्‍थ ऐड्स लाइफ टू इयर्स थी। अधिकतर देशों में जीवन बढ़ रहा है। इसका मतलब यह है कि वहां लोग अब ज्‍यादा दिनों तक जिंदा रहते हैं और वह एक ऐसी उम्र में पहुंच रहे हैं, जहां उन्‍हें स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं की सर्वाधिक आवश्‍यकता होती है।
मानवीय विकास और ह्रास को हम शैशवकाल, बाल्‍यकाल, युवावस्‍था, प्रौढ़ावस्‍था और वृद्धावस्‍था के रूप में जानते हैं। शैशवकाल सात वर्षों का, बाल्‍यकाल 14 वर्षों का, युवावस्‍था 21, प्रौढ़ावस्‍था 50 वर्ष तक होती है। इसके बाद वृद्धावस्‍था का आगमन होता है। जीवन को दो महत्‍वपूर्ण घटक प्रभावित करते हैं, जिनमें आनुवांशिकता और पर्यावरण शामिल हैं। पर्यावरण की परिस्थितियां जीवन को रोगों आदि के रूप में प्रभावित करती हैं।

विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के अनुसार एक बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य प्रणाली के लिए यह आवश्‍यक है कि वह ठोस निर्णयों एवं नीतियों पर आधारित हो, उसकी वित्‍तीय व्‍यवस्‍था मजबूत हो और बेहतरीन चिकित्‍सकीय व्‍यवस्‍था बनाई गई हो।

देश की अर्थव्‍यवस्‍था में स्‍वास्‍थ्‍य सुविधा का महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। 2008 में तमाम विकसित देशों में सकल घरेलू उत्‍पाद का औसतन नौ प्रतिशत स्‍वास्‍थ्‍य सुविधा उद्योग पर खर्च किया गया था। अमरीका में इस मद में सकल घरेलू उत्‍पाद का 16 प्रतिशत, फ्रांस में 11.2 प्रतिशत और स्विट्जरलैंड में 10.7 प्रतिशत खर्च किए जाते हैं।

सामान्‍य वृद्धावस्‍था को तय करना बहुत कठिन काम है, क्‍योंकि एक तरफ जहां शारीरिक बदलाव होते रहते हैं, तो दूसरी तरफ बुढ़ापे की वजह से पुराने रोग सिर उठाने लगते हैं। रोगों से मुक्‍त वृद्धावस्‍था की कल्‍पना करना बहुत कठिन है और इसीलिए यह कहा जाता है कि 'वृद्धावस्‍था स्‍वयं एक रोग है'.

कुछ बीमारियां ऐसी हैं, जो वृद्धावस्‍था में ज्‍यादा पैदा होती हैं, जैसे मधुमेह, कैंसर, हृदय रोग और किडनी संबंधी रोग। यह बीमारियां शरीर के विभिन्‍न भागों जैसे किडनी, मस्तिष्‍क और हृदय को प्रभावित करती हैं।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना में 90 प्रतिशत सब्सिडी के साथ आरजीजीवीवाई को जारी रखने का प्रस्ताव है। बारहवीं योजना के तहत यह योजना जनसंख्या और गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के अतिरिक्त बाकी सभी बची हुई बस्तियों को समाविष्ट करने का उद्देश्य रखेगी । गरीबी रेखा से नीचे के भार को 40-60 वाट से 250 वाट श्रृंखला तक बढ़ाने और गरीबी रेखा से नीचे के सभी परिवारों को एलईडी प्रदान करने का प्रस्ताव है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में खासतौर पर कृषि हेतु उत्पादक लोड के लिए अलग नवीन योजना का भी प्रस्ताव है...

बारहवीं पंचवर्षीय योजना में 90 प्रतिशत सब्सिडी के साथ आरजीजीवीवाई को जारी रखने का प्रस्ताव है। बारहवीं योजना के तहत यह योजना जनसंख्या और गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के अतिरिक्त बाकी सभी बची हुई बस्तियों को समाविष्ट करने का उद्देश्य रखेगी । गरीबी रेखा से नीचे के भार को 40-60 वाट से 250 वाट श्रृंखला तक बढ़ाने और गरीबी रेखा से नीचे के सभी परिवारों को एलईडी प्रदान करने का प्रस्ताव है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में खासतौर पर कृषि हेतु उत्पादक लोड के लिए अलग नवीन योजना का भी प्रस्ताव है

2001 की जनगणना के अनुसार देश में 1.19 लाख गांवों और 7.80 करोड़ घरों में बिजली नहीं थी। जनसंख्या का एक बड़ा भाग अंधकार में जीवन बसर कर रहा था। इस पृष्ठभूमि में सभी गांवों और बस्तियों के विद्युतीकरण, सभी ग्रामीण परिवारों तक बिजली की पहुंच मुहैया कराने और गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को निःशुल्क बिजली कनेक्शन मुहैया कराने के उद्देश्य के साथ आरजीजीवीवाई की शुरुआत हुई...

2001 की जनगणना के अनुसार देश में 1.19 लाख गांवों और 7.80 करोड़ घरों में बिजली नहीं थी। जनसंख्या का एक बड़ा भाग अंधकार में जीवन बसर कर रहा था। इस पृष्ठभूमि में सभी गांवों और बस्तियों के विद्युतीकरण, सभी ग्रामीण परिवारों तक बिजली की पहुंच मुहैया कराने और गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को निःशुल्क बिजली कनेक्शन मुहैया कराने के उद्देश्य के साथ आरजीजीवीवाई की शुरुआत हुई।
राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना (आरजीजीवीवाई) के अंतर्गत देश भर में 1.10 लाख विद्युतरहित गांवों के विद्युतीकरण और आंशिक रुप से विद्युतीकृत 3,48,987 गांवों के गहन विद्युतीकरण के लिए लक्षित 576 परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है। इसके अतिरिक्त आरजीजीवीवाई के द्वितीय चरण के तहत 33 जिलों में तैंतीस परियोजनाओं को भी मंजूरी दी गई है साथ ही द्वितीय चरण में छत्तीस अनुपूरक परियोजनाओं को भी मंजूरी प्रदान की गई है। 22 मार्च 2012 तक 1,03,611 गांवो के विद्युतीकरण और गरीबी रेखा से नीचे के 1.91 करोड़ परिवारों को निःशुल्क बिजली उपलब्ध कराकर भारत निर्माण के निर्धारित लक्ष्य से आगे तक पहुंचा जा चुका है। भारत निर्माण के तहत उन एक लाख विद्युतरहित गांवों के विद्युतीकरण और गरीबी रेखा से नीचे के 1.75 करोड परिवारों को निःशुल्क बिजली कनेक्शन प्रदान करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे के विद्युत रहित परिवारों के विद्युतीकरण के अलावा कुटीर ज्योति कार्यक्रम के अनुसार गरीबी रेखा से ऊपर के परिवारों के लिए भी प्रावधान है जो अपने घर के लिए कनेक्शन प्राप्त करने हेतु प्रस्तावित कनेक्शन शुल्क का भुगतान कर सकते हैं। नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय उन सुदूर विद्युत रहित गांवों और विद्युतीकृत गांवों की विद्युतरहित इलाकों के प्रकाशायन/बुनियादी विद्युतीकरण के लिए सुदूर ग्रामीण विद्युतीकरण कार्यक्रम का क्रियान्वयन कर रही है जहां राज्य सरकारों के लिए ग्रिड विस्तारण मुमकिन नहीं है अथवा जो आरजीजीवीवाई के तहत नहीं आते।

इस योजना की क्रियान्वयन प्रक्रिया में शुरुआती आधार पर निष्पादन के लिए जिला आधारित विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करना शामिल है। इसके पश्चात केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम इसके कार्यान्वयन में शामिल हैं। विद्युतीकृत गांवों के प्रमाणन में ग्राम पंचायत शामिल है।
आरजीजीवीवाई के तहत विद्युतरहित सार्वजनिक स्थानों जैसे- स्कूलों, पंचायत कार्यालयों, सामुदायिक/ स्वास्थ्य देखभाल केन्द्रों, औषधालयों आदि में भी विद्युत कनेक्शन प्रदान किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली प्रदान करने का अर्थ है इन क्षेत्रों का पूर्ण रूपेण विकास जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं, कंप्यूटराइजेशन, दूरसंचार, भूमि रिकॉर्डों की ऑनलाइन पहुंच और कृषि में नवीन तकनीक की सुगमता शामिल है। इसके अलावा बिजली की पंहुच से खादी और ग्रामोद्योग उद्योग को बढ़ावा मिलेगा।

देश में शहरी, पालिका संबंधी और ओद्योगिकी कचरों से 3600 मेगावाट बिजली तैयार करने की संभावना है और वर्ष 2017 तक यह बढ़कर 5200 मेगावाट हो सकती है। शहरी स्थानीय निकायों और सरकार के द्वारा यह परियोजनाएं स्थापित की जा सकती हैं और इसमें निजी क्षेत्र के डेवलपरों की भागेदारी भी हो सकती है। फरवरी 2012 के अंत तक कचरे से कुल मिलाकर शहरी क्षेत्र में 36.20 मेगावाट बिजली और औद्योगिक क्षेत्र में 53.46 मेगावाट ग्रीड आधारित बिजली का उत्पादन किया गया था।

विभिन्न प्रौद्योगिकियों के आधार पर कचरे से ऊर्जा तैयार करने की परियोजनाओं के लिए प्रति मेगावाट लागत अधिक होती है। बायोमिथेन तैयार करने के लिए 6 से 9 करोड़ रुपये के बीच में लागत आती है जबकि गैस तैयार करने और दहन के लिए इसपर 9 से 10 करोड़ रुपये की लागत आती है। हालांकि इस परियोजना के लिए 20 लाख रुपये से लेकर 3 करोड़ रुपये तक वित्तीय सहायता दी जाती है।
देश में शहरी, पालिका संबंधी और ओद्योगिकी कचरों से 3600 मेगावाट बिजली तैयार करने की संभावना है और वर्ष 2017 तक यह बढ़कर 5200 मेगावाट हो सकती है। शहरी स्थानीय निकायों और सरकार के द्वारा यह परियोजनाएं स्थापित की जा सकती हैं और इसमें निजी क्षेत्र के डेवलपरों की भागेदारी भी हो सकती है। फरवरी 2012 के अंत तक कचरे से कुल मिलाकर शहरी क्षेत्र में 36.20 मेगावाट बिजली और औद्योगिक क्षेत्र में 53.46 मेगावाट ग्रीड आधारित बिजली का उत्पादन किया गया था।

ज्‍़यादातर कचरा जो पैदा होता है वह भूमि को समतल बनाने (लैंडफिल) तथा जल निकायों में चले जाते हैं। अत: इनका सही तरीके से निपटान नहीं होता है तथा यह मिथेन और कार्बन डायओक्‍साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों के स्रोत बनते हैं। कचरे का निपटान करने से पहले उनको सही ढंग से संसाधित करने तथा उनका ऊर्जा के उत्‍पादन में इस्‍तेमाल करने से इस समस्‍या में सुधार हो सकता है...

ज्‍़यादातर कचरा जो पैदा होता है वह भूमि को समतल बनाने (लैंडफिल) तथा जल निकायों में चले जाते हैं। अत: इनका सही तरीके से निपटान नहीं होता है तथा यह मिथेन और कार्बन डायओक्‍साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों के स्रोत बनते हैं। कचरे का निपटान करने से पहले उनको सही ढंग से संसाधित करने तथा उनका ऊर्जा के उत्‍पादन में इस्‍तेमाल करने से इस समस्‍या में सुधार हो सकता है।
इसमें दो स्‍तरीय दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है जिसमें न केवल अपशिष्‍ट का निपटान पर्यावरण के अनुकूल हो सकेगा बल्कि साथ ही साथ प्रदूषण कम करने और विकास की ज़रूरतों के लिए आवश्‍यक ऊर्जा का उत्‍पादन भी हो सकेगा। ऐसी कई पद्धतियां हैं जिससे कचरे के जरिए ऊर्जा का उत्‍पादन हो सकता है।
सबसे पहला है अवायवीय (ऐनरोबिक) बायजेशन या बायोमिथनेशन। इस पक्रिया में जैविक कचरे को अलग किया जाता है तथा उसे बायो गैस डायजेस्‍टर में डाला जाता है। मिथेन से संपन्‍न बायोगैस का उत्‍पादन करने के लिए अवायवीय स्थितियों में इस कचरे का अपशिष्‍ट बायोडिग्रेडेशन होता है। इस तरह से पैदा हुर्इ बॉयोगैस का इस्‍तेमाल खाना पकाने, बिजली पैदा करने आदि में हो सकता है। इस प्रक्रिया के दौरान बने चिपचिपे पदार्थ का इस्‍तेमाल खाद के रूप में किया जा सकता है।
अगली प्रक्रिया कम्‍बशन/इन्सिनेरेश है। इस पद्धति में उच्‍च तापमान पर ( लगभग 800 सी) कचरे को औक्‍सीजन की प्राचुर्य मात्रा में सीधे रूप से जलाया जाता है। इससे जैविक पदार्थ के ऊष्‍म तत्‍व 65-80 प्रतिशत तक गरम हवा, भाप तथा गरम पानी में तब्‍दील होते हैं। इसक जरिए पैदा हुई भाप का इस्‍तेमाल स्‍टीम टर्बाइन में बिजली पैदा करने के लिए हो सकता है।
पायरॉलिसिस/गैसिफिकेशन एक अन्‍य प्रक्रिया है जिसमें जैविक पदार्थों का ऊष्‍म के जरिए रायासनिक अपघटन होता है। जैविक पदार्थ को हवा की अनुपस्थिति या हवा की सीमित मात्रा में तब तक गरम किया जाता हे जब तक कि उनका गैस के छोटे मॉलिक्‍यूल में अपघटन न हो जाएं ( जिसे सम्मिलित रूप से सिनगैस कहते हैं )। उत्‍पादित गैस को प्रोड़यूसर गैस कहते हैं जिसमें कार्बन मानोक्‍साइड (25 प्रतिशत), हाइड्रोजन तथा हाइड्रोकार्बन(15 प्रतिशत), कार्बन डायोक्‍साइड और नाइट्रोजन (15 प्रतिशत) गैस सम्मिलित होती हैं। बिजली पैदा करने के लिए प्रोड्यूसर गैस को इंटरनल कम्‍बशन जेनरेटर सेट या टर्बाइन में जलाया जाता है।

नैनो प्रौद्योगिकी

नैनो प्रौद्योगिकी ज्ञान का भंडार है और ऐसी प्रौद्योगिकी है, जो विभिन्‍न प्रकार के उत्‍पादों और प्रक्रियाओं को प्रभावित करेगी। इसके राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था और विकास के लिए दूरगामी परिणाम होंगे। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) ने पिछले कुछ समय में कई पहल शुरू की हैं और नैनो उनमें से एक थी। डीएसटी ने नैनो विज्ञान के क्षेत्र में 2001 में नैनो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पहल (एनआईएसटी) नामक एक आदर्श कार्यक्रम शुरू किया था। नैनो मिशन इसी कार्यक्रम का अनुगामी है। सरकार ने सन् 2007 में पांच वर्ष के लिए एक हजार करोड़ रुपये के आवंटन के साथ इसे नैनो मिशन के रूप में मंजूर किया था। नैनो मिशन की इस प्रकार संरचना की गई है कि यह इस क्षेत्र में विभिन्‍न एजेंसियों के राष्‍ट्रीय अनुसंधान संबं‍धी प्रयासों के बीच तालमेल स्‍थापित कर सके और जोरदार ढंग से नये कार्यक्रम शुरू कर सके। आज भारत वैज्ञानिक प्रकाशनों की दृष्टि से विश्‍व के छठे देश के रूप में उभरा है। इस प्रकार लगभग एक हजार अनुसंधान कर्ताओं का एक सक्रिय अनुसंधान समाज तैयार हो गया है। इसके अलावा कुछ रुचिकर प्रयोग भी सामने आए हैं।
नैनो मिशन के लिए अनुसंधान का क्षमता निर्माण सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण है, ताकि भारत विश्‍व में ज्ञान के केन्‍द्र के रूप में उभर सके। बड़ी संख्‍या में लोग नैनो विज्ञान के अनुसंधान और मूलभूत पहलुओं तथा प्रशिक्षण की ओर आकर्षित हो रहे हैं। नैनो मिशन राष्‍ट्रीय विकास विशेष रूप से स्‍वच्‍छ पेयजल, सामग्री विकास, संवेदक विकास आदि जैसे राष्‍ट्रीय महत्‍व के क्षेत्र में उत्‍पादों और प्रक्रियाओं के विकास के लिए भी संघर्ष कर रहा है। नैनो मिशन के उद्देश्‍यों में मूलभूत अनुसंधान का प्रोत्‍साहन, संरचना विकास, नैनो प्रयोग और प्रौद्योगिकी विकास, मानव संसाधन विकास और राष्‍ट्रीय सहयोग शामिल हैं।

वैज्ञानिकों द्वारा अपने तौर पर और / या वैज्ञानिकों के समूह द्वारा किये जा रहे, मूलभूत अनुसंधान के लिए वित्‍तीय सहायता दी जाएगी। पदार्थ की मूलभूत समझ पैदा करने के लिए अध्‍ययन/अनुसंधान करने वाले श्रेष्‍ठता के केन्‍द्र तैयार किये जाएंगे, जो नैनो स्‍तर पर नियंत्रण और परिचालन करेंगे।

अनुसंधान के लिए संरचना
विभिन्‍न गतिविधियों के लिए आवश्‍यक महंगे और आधुनिक उपकरणों की साझी सुविधाओं की एक शृंखला देश के विभिन्‍न केन्‍द्रों में स्‍थापित की जाएगी। ऑप्टिकल ट्वीजर, नैनो इन्‍डेन्‍टर, ट्रांसमिशन इलैक्‍ट्रॉन माईक्रोस्‍कोप, एटोमिक फोर्स माईक्रोस्‍कोप, स्‍कैनिंग टनलिंग माईक्रोस्‍कोप, मैट्रिक्‍स असिस्‍टेड लेज़र डिजोर्पशन टार्इम ऑफ फ्लाइट मास स्‍पैक्‍ट्रोमीटर, माईक्रोअरे स्‍पॉटर और स्‍कैनर आदि की नैनो के स्‍तर पर जांच अनुसंधान की जरूरत है।
नैनो अनुप्रयोग और प्रौद्योगिकी विकास कार्यक्रम

उत्‍पाद और यंत्र विकसित करने के लिए नैनो अनुप्रयोग एवं प्रौद्योगिकी विकास कार्यक्रम को उत्‍प्रेरित करने के लिए मिशन का प्रस्‍ताव है कि अनुप्रयोगोन्‍मुख अनुसंधान और विकास परियोजनाओं को प्रोत्‍साहित किया जाए, नैनो अनुप्रयोग और प्रौद्योगिकी विकास केन्‍द्र स्‍थापित किये जाएं और नैनो प्रौद्योगिकी कारोबार इन्‍क्‍यूबेटर आदि खोले जाएं । इस मिशन में औद्योगिक क्षेत्र का सीधे अथवा जन – निजी भागीदारी उद्यमों के जरिए सहयोग लिया जा रहा है।

मानव संसाधन विकास
यह मिशन विभिन्‍न क्षेत्रों में अनुसंधानकर्ताओं और व्‍यावसायियों को कारगर शिक्षा और प्रशिक्षण उपलब्‍ध करने पर ध्‍यान केन्द्रित करेगा ताकि नैनो स्‍तर के विज्ञान , इंजीनियरी और प्रौद्योगिकी के लिए वास्तविक अंत: - अनुशासी संस्‍कृति तैयार हो सके। इससे कला और विज्ञान के स्‍नातकोत्‍तर कार्यक्रम लाभान्वित होंगे। इस क्षेत्र में राष्‍ट्रीय और समुद्र – पारीय पीएचडी के बाद की फेलोशिप, विश्‍वविद्यालयों में चेयर की स्‍थापना अन्‍य पहलू हैं।

नैनो मिशन का नैनो मिशन परिषद द्वारा संचालन किया जा रहा है। तकनीकी कार्यक्रम नैनो विज्ञान परामर्शदात्री समूह (एनएसएजी) और नैनो अनुप्रयोग एवं प्रौद्योगिकी परामर्शदात्री समूह (एनएटीएजी) नामक दो सलाहकार समूह द्वारा संचालित किये जा रहे हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने नैनो विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभिन्‍न गतिविधियों में सहायता प्रदान की है।

वैज्ञानिकों की अनुसंधान और विकास परियोजनाओं के लिए सहायता की गई है। चिकित्सकीय कार्यों के लिए विस्‍तृत प्रौद्योगिकियां विकसित की गई हैं। चितिन / चितोसन जेल का इस्‍तेमाल करते हुए घावों को ठीक करने के लिए मेम्‍बरेन स्‍केफोल्‍ड और आंखों में दवाई डालने के लिए नैनो कणों का कोच्चि स्थि‍त अम़ृता इन्‍स्‍टीट्यूट ऑफ मेडीकल साइंसेस और हैदराबाद स्थित सेन्‍टर फॉर सेलुलर एंड मोलिक्‍यूलर बायोलॉजी तथा मुम्बई स्थित यूएसवी ने क्रमश: विकास किया है। नैनो स्‍तर की प्रणाली के आधारभूत वैज्ञानिक पहलुओं पर काम कर रहे वैज्ञानिकों के लिए लगभग 130 परियोजनाओं की सहायता की गई है। कई परियोजनाओं में सेमी कंडक्‍टर नैनो क्रिकेटल्‍स पर विस्‍तृत अध्‍ययन का काम शुरू किया गया है। चूंकि सेमी – कंडक्‍टर कण ऊर्जा के अंतर के उतार –चढ़ाव और आंखों के गुणों में तदनुरूप परिवर्तन जैसे आकार संबंधी विशेषताओं को प्रदशित करते हैं , इसलिए उन्‍हें तकनीकी रूप से महत्‍वपूण सामग्री समझा जाता है। एकल भित्ति कार्बन नैनोट्यूब (एसडब्‍ल्‍यूएनटी) बंडलों के मेट पर विभिन्‍न तरल पदार्थों और गैसों का बहाव विद्युत संकेत पैदा करते हैं। इस आविष्कार के कई महत्‍वपूर्ण निहितार्थ हैं। तरल पदार्थ संबंधी सूक्ष्म यंत्रों के विकास का जैव प्रौद्योगिकी, औषध उद्योग, डरग डिलिवरी निमौनीया, सूचना प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में कई परिणाम होंगे।

डीएसटी ने आधुनिक उपकरणों के कई केन्‍द्र स्‍थापित किये हैं, ताकि अनुसंधानकर्ता नैनो स्‍तर की प्रणाली पर काम कर सकें। समूचे देश में स्‍थापित करने के लिए नैनो विज्ञान की 11 इकाइयों / मुख्‍य समुहों को मंजूरी दी गई है। उनमें क्षेत्र के अन्‍य वैज्ञानिकों के साथ विचारों का आदान प्रदान करने के लिए कुछ अधिक आधुनिक सुविधाएं उपलब्‍ध हैं। इससे नैनो –स्‍केल प्रणाली पर विकेन्द्रीकृत तरीके से वैज्ञानिक अनुसंधान को प्रोत्‍साहित किया जा सकेगा। विशिष्‍ट अनुप्रयोग के विकास पर केन्द्रित नैनों प्रौद्योगिकी के सात केन्‍द्र और कम्‍प्‍यूटेशनल सामग्री में श्रेष्‍ठता का एक केन्‍द्र भी स्‍थापित किया गया है। विभिन्‍न देशों के साथ अनुसंधान और विकास की गतिविधियां चलाई जा रही हैं। मानव संसाधन विकास के लिए डीएसटी ने उद्योग से संबद्ध संयुक्‍त संस्‍था परियोजनाओं और सार्वजनिक – निजी भागीदारी की कुछ अन्‍य गतिविधियों को भी प्रोत्‍साहित किया गया है।

Wednesday, April 25, 2012

Robotics brings together several very different engineering areas and skills. There is metalworking for the body.

Robotics brings together several very different engineering areas and skills. There is metalworking for the body.
Robotics is the branch of technology that deals with the design, construction, operation, structural disposition, manufacture and application of robots and computer systems for their control, sensory feedback, and information processing.
The concept and creation of machines that could operate autonomously dates back to classical times, but research into the functionality and potential uses of robots did not grow substantially until the 20th century.
Today, robotics is a rapidly growing field, as we continue to research, design, and build new robots that serve various practical purposes, whether domestically, commercially, or militarily. Many robots do jobs that are hazardous to people such as defusing bombs, exploring shipwrecks, and mines.

A robot is a mechanical or virtual intelligent agent that can perform tasks automatically or with guidance, typically by remote control. In practice a robot is usually an electro-mechanical machine that is guided by computer and electronic programming. Robots can be autonomous, semi-autonomous or remotely controlled. Robots range from humanoids such as ASIMO and TOPIO to Nano robots, Swarm robots, Industrial robots, military robots, mobile and servicing robots. By mimicking a lifelike appearance or automating movements, a robot may convey a sense that it has intent or agency of its own. The branch of technology that deals with robots is robotics.

Contemporary uses.....
General-purpose autonomous robots can perform a variety of functions independently. General-purpose autonomous robots typically can navigate independently in known spaces, handle their own re-charging needs, interface with electronic doors and elevators and perform other basic tasks. Like computers, general-purpose robots can link with networks, software and accessories that increase their usefulness. They may recognize people or objects, talk, provide companionship, monitor environmental quality, respond to alarms, pick up supplies and perform other useful tasks. General-purpose robots may perform a variety of functions simultaneously or they may take on different roles at different times of day. Some such robots try to mimic human beings and may even resemble people in appearance; this type of robot is called a humanoid robot. Humanoid robots are still in a very limited stage, as no humanoid robot, can, as of yet, actually navigate around a room that it has never been in. Thus humanoid robots are really quite limited, despite their intelligent behaviors in their well-known environments.

Car production
Over the last three decades automobile factories have become dominated by robots. A typical factory contains hundreds of industrial robots working on fully automated production lines, with one robot for every ten human workers. On an automated production line, a vehicle chassis on a conveyor is welded, glued, painted and finally assembled at a sequence of robot stations.
Packaging
Industrial robots are also used extensively for palletizing and packaging of manufactured goods, for example for rapidly taking drink cartons from the end of a conveyor belt and placing them into boxes, or for loading and unloading machining centers.
Electronics
Mass-produced printed circuit boards (PCBs) are almost exclusively manufactured by pick-and-place robots, typically with SCARA manipulators, which remove tiny electronic components from strips or trays, and place them on to PCBs with great accuracy.Such robots can place hundreds of thousands of components per hour, far out-performing a human in speed, accuracy, and reliability.


Monday, April 23, 2012

Superconductivity is a phenomenon observed in several metals and ceramic materials. When these materials are cooled to temperatures ranging from near absolute zero ( 0 degrees Kelvin, -273 degrees Celsius) to liquid nitrogen temperatures ( 77 K, -196 C), their electrical resistance drops with a jump down to zero.

Superconductivity is a phenomenon observed in several metals and ceramic materials. When these materials are cooled to temperatures ranging from near absolute zero ( 0 degrees Kelvin, -273 degrees Celsius) to liquid nitrogen temperatures ( 77 K, -196 C), their electrical resistance drops with a jump down to zero.

The temperature at which electrical resistance is zero is called the critical temperature (Tc) and this temperature is a characteristic of the material as it is shown in the following table:
Material Type Tc(K)
Zinc metal 0.88
Aluminummetal 1.19
Tin metal 3.72
Mercury metal 4.15
YBa2Cu3O7ceramic 90
TlBaCaCuO ceramic 125

If mercury is cooled below 4.1 K, it loses all electric resistance. This discovery of superconductivity by H. Kammerlingh Onnes in 1911 was followed by the observation of other metals which exhibit zero resistivity below a certain critical temperature.

If mercury is cooled below 4.1 K, it loses all electric resistance. This discovery of superconductivity by H. Kammerlingh Onnes in 1911 was followed by the observation of other metals which exhibit zero resistivity below a certain critical temperature. The fact that the resistance is zero has been demonstrated by sustaining currents in superconducting lead rings for many years with no measurable reduction. An induced current in an ordinary metal ring would decay rapidly from the dissipation of ordinary resistance, but superconducting rings had exhibited a decay constant of over a billion years!

One of the properties of a superconductor is that it will exclude magnetic fields, a phenomenon called the Meissner effect.

The disappearance of electrical resistivity was modeled in terms of electron pairing in the crystal lattice by John Bardeen, Leon Cooper, and Robert Schrieffer in what is commonly called the BCS theory.

A new era in the study of superconductivity began in 1986 with the discovery of high critical temperature superconductors.

The critical temperature for superconductors is the temperature at which the electrical resistivity of a metal drops to zero. The transition is so sudden and complete that it appears to be a transition to a different phase of matter; this superconducting phase is described by the BCS theory. Several materials exhibit superconducting phase transitions at low temperatures. The highest critical temperature was about 23 K until the discovery in 1986 of some high temperature superconductors.

Materials with critical temperatures in the range 120 K have received a great deal of attention because they can be maintained in the superconducting state with liquid nitrogen (77 K).

Superconducting magnets are some of the most powerful electromagnets known. They are used in MRI/NMR machines, mass spectrometers, and the beam-steering magnets used in particle accelerators. They can also be used for magnetic separation, where weakly magnetic particles are extracted from a background of less or non-magnetic particles, as in the pigment industries.
In the 1950s and 1960s, superconductors were used to build experimental digital computers using cryotron switches. More recently, superconductors have been used to make digital circuits based on rapid single flux quantum technology and RF and microwave filters for mobile phone base stations.
Superconductors are used to build Josephson junctions which are the building blocks of SQUIDs (superconducting quantum interference devices), the most sensitive magnetometers known. SQUIDs are used in scanning SQUID microscopes and magnetoencephalography. Series of Josephson devices are used to realize the SI volt. Depending on the particular mode of operation, a superconductor-insulator-superconductor Josephson junction can be used as a photon detector or as a mixer. The large resistance change at the transition from the normal- to the superconducting state is used to build thermometers in cryogenic micro-calorimeter photon detectors. The same effect is used in ultrasensitive bolometers made from superconducting materials.
Other early markets are arising where the relative efficiency, size and weight advantages of devices based on high-temperature superconductivity outweigh the additional costs involved.
Promising future applications include high-performance smart grid, electric power transmission, transformers, power storage devices, electric motors (e.g. for vehicle propulsion, as in vactrains or maglev trains), magnetic levitation devices, fault current limiters, nanoscopic materials such as buckyballs, nanotubes, composite materials and superconducting magnetic refrigeration. However, superconductivity is sensitive to moving magnetic fields so applications that use alternating current (e.g. transformers) will be more difficult to develop than those that rely upon direct current.

Optical fiber can be used as a medium for telecommunication and computer networking because it is flexible and can be bundled as cables. It is especially advantageous for long-distance communications, because light propagates through the fiber with little attenuation compared to electrical cables. This allows long distances to be spanned with few repeaters.